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ख़ुशबू-ए-दर्द के बग़ैर रंग-ए-जमाल के बग़ैर | शाही शायरी
KHushbu-e-dard ke baghair rang-e-jamal ke baghair

ग़ज़ल

ख़ुशबू-ए-दर्द के बग़ैर रंग-ए-जमाल के बग़ैर

कुमार पाशी

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ख़ुशबू-ए-दर्द के बग़ैर रंग-ए-जमाल के बग़ैर
कैसे गुज़र गई हयात हिज्र-ओ-विसाल के बग़ैर

इन में तिरा ही रंग है इन में तिरा ही रूप है
फूलों की क्या मिसाल दूँ तेरी मिसाल के बग़ैर

मेरी तलब को पढ़ लिया उस की निगाह-ए-तेज़ ने
सौ सौ हैं उज़्र उस के पास मेरे सवाल के बग़ैर

तू मेरा हौसला तो देख फिर हूँ उसी के रू-ब-रू
तीर-ओ-तबर हैं उस के पास और मैं ढाल के बग़ैर

बढ़ जा तू मुझ को रौंद कर मंज़िल-ए-नौ की ले ख़बर
तेरा उरूज है मुहाल मेरे ज़वाल के बग़ैर

'पाशी' वो दिल का शहर हो दश्त हो या वो बहर हो
रौशन नहीं कोई जगह उन के जमाल के बग़ैर