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ख़ुश-गुमाँ हर आसरा बे-आसरा साबित हुआ | शाही शायरी
KHush-guman har aasra be-asra sabit hua

ग़ज़ल

ख़ुश-गुमाँ हर आसरा बे-आसरा साबित हुआ

ज़फ़र मुरादाबादी

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ख़ुश-गुमाँ हर आसरा बे-आसरा साबित हुआ
ज़िंदगी तुझ से तअल्लुक़ खोखला साबित हुआ

जब शिकायत की कबीदा-ख़ातिरी हासिल हुई
सब्र-ए-महरूमी मिरा हर्फ़-ए-दुआ साबित हुआ

बे-तलब मिलती रहें यूँ तो हज़ारों नेमतें
थे तलब की आस में बरहम तो क्या साबित हुआ

रू-ब-रू होते हुए भी हम रहे मंज़िल से दूर
इक अना का मसअला ज़ंजीर-ए-पा साबित हुआ

आह भर कर चल दिए सब ही तमाशा देख कर
वक़्त पर जो डट गया वो देवता साबित हुआ

टूट कर बिखरा मिरे दिल से यक़ीं का आइना
मैं उसे समझा था क्या लेकिन वो क्या साबित हुआ

साँस जो आया बदन में था वफ़ा से हम-कनार
और जब वापस हुआ तो बेवफ़ा साबित हुआ

सर के शैदाई बहुत मायूस महफ़िल से उठे
जब 'ज़फ़र' जैसा सुख़न-वर बे-नवा साबित हुआ