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ख़ुनुक-जोशी न करते जूँ सबा गर ये बुताँ हम से | शाही शायरी
KHunuk-joshi na karte jun saba gar ye butan humse

ग़ज़ल

ख़ुनुक-जोशी न करते जूँ सबा गर ये बुताँ हम से

वली उज़लत

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ख़ुनुक-जोशी न करते जूँ सबा गर ये बुताँ हम से
तो मिस्ल-ए-गुंचा-ए-गुल दिल न जाता राएगाँ हम से

फिरे उस ज़ुल्फ़-ओ-रू के इश्क़ में दोनों-जहाँ हम से
उधर कुफ़्फ़ार फिर गए सब इधर ईमानियाँ हम से

अदू थे माली और सय्याद गुलचीं ने क़यामत की
ख़ुदा ला'नत करे तीनों पे छूटा गुलिस्ताँ हम से

उजाड़ा गिर्या-ओ-शोर-ए-जुनूँ के वास्ते हम को
वले गुलशन को और आब-ओ-नमक था बाग़बाँ हम से

हमें तो रास्ती जों तीर हरगिज़ रास आई नीं
हमेशा टेढ़े ही रहते हैं ये अबरू-कमाँ हम से

अक़ब यारों के सर पर ख़ाक करते हम भी जाते हैं
रहा जाता नहीं जों गर्द-ए-राह-ए-कारवाँ हम से

हमें तिफ़्लाँ तो पत्थरों की मोहब्बत से न भूलेंगे
चले सहरा को हम फिर गए बला से शहरियाँ हम से

हमीं टुक ज़ब्ह कर ले साया-ए-गुलबुन में जीता रह
छुड़ाया तू ने गर सय्याद गुल का आस्ताँ हम से

मज़े में दर्द-ए-सर के कब से मोहताज-ए-दवा 'उज़लत'
अबस ऐ संदली-रंगो हुए हो सरगिराँ हम से