EN اردو
खुलता नहीं है राज़ हमारे बयान से | शाही शायरी
khulta nahin hai raaz hamare bayan se

ग़ज़ल

खुलता नहीं है राज़ हमारे बयान से

दाग़ देहलवी

;

खुलता नहीं है राज़ हमारे बयान से
लेते हैं दिल का काम हम अपनी ज़बान से

क्या लज़्ज़त-ए-विसाल अदा हो बयान से
सब हर्फ़ चिपके जाते हैं मेरी ज़बान से

मशहूर राज़-ए-इश्क़ है किस के बयान से
मेरी ज़बान से कि तुम्हारी ज़बान से

फ़ित्ना बना ज़मीन पे हर ज़र्रा ख़ाक का
निकले हैं बहर-ए-सैर वो जिस दम मकान से

उस दिन से मुझ को नींद न आई तमाम उम्र
इक शब मिली थी आँख तिरे पासबान से

ये ख़ाक में मिलाए तो वो हो सितम-शरीक
मुझ को ज़मीं से लाग उन्हें आसमान से

लेना सँभालना कि मिरे होश उड़ चले
आता है कोई मस्त क़यामत की शान से

मुझ से नज़र मिला के तुम अबरू में बल न दो
सीधा चलेगा तीर न टेढ़ी कमान से

बाज़ार-ए-इश्क़ में हैं बहुत दिल जगह जगह
देखें वो मोल लेते हैं किस की दुकान से

शोरीदा-सर वो हूँ कि उसे सर से तोड़ दूँ
गर संग-ए-हादसा भी गिरे आसमान से

अर्ज़ां करे फ़रोख़्त अगर मय-फ़रोश-ए-इश्क़
लेने लगें फ़रिश्ते भी उस की दुकान से

गुज़री है आज़माइश-ए-महर-ओ-वफ़ा में उम्र
फ़ुर्सत मुझे मिली न कभी इम्तिहान से

दिल भी बचा जिगर भी बचा ख़ैर हो गई
तीर-ए-निगाह पार हुआ दरमियान से

मैं तुम को नागवार हूँ दिल मुझ को नागवार
तुम मुझ से तंग और हूँ मैं तंग जान से

हाँ हाँ तिरा रक़ीब से बे-शक है रब्त-ज़ब्त
रुत्बा यक़ीन का है ज़ियादा गुमान से

मेहर-ओ-वफ़ा का नाम है अब बात बात पर
ये सुन लिया है आप ने किस की ज़बान से

कैसा खिला है फूल जब आया बहार पर
पूछे तो कोई लुत्फ़-ए-जवानी जवान से

दानिस्ता आते-जातों से लड़ता है रात दिन
फिर हो पड़ी थी आज तिरे पासबान से

इस ख़ूब-रू को बज़्म-ए-हसीनाँ में देखिए
करता है आन-बान बड़ी आन-तान से

ऐ 'दाग़' इस की ख़ैर मनाता है आदमी
कोई अज़ीज़ बढ़ के नहीं अपनी जान से