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खुले हैं मश्रिक-ओ-मग़रिब की गोद में गुलज़ार | शाही शायरी
khule hain mashriq-o-maghrib ki god mein gulzar

ग़ज़ल

खुले हैं मश्रिक-ओ-मग़रिब की गोद में गुलज़ार

अली सरदार जाफ़री

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खुले हैं मश्रिक-ओ-मग़रिब की गोद में गुलज़ार
मगर ख़िज़ाँ को मयस्सर नहीं यक़ीन-ए-बहार

ख़बर नहीं है बमों के बनाने वालों को
तमीज़ हो तो मह-ओ-मेहर-ओ-कहकशाँ हैं शिकार

उसी से तेग़-ए-निगह आब-दार होती है
तुझे बताऊँ बड़ी शय है जुरअत-ए-इंकार

किए हैं शौक़ ने पैदा हज़ार वीराने
इक आरज़ू ने बसाए हैं लाख शहर-ए-दयार

नशात-ए-सुब्ह-ए-बहाराँ तुझे नसीब नहीं
तिरे निगह में है बीती हुई शबों का ख़ुमार

फ़रोख़्त होती है इंसानियत सी जिंस-ए-गिराँ
जहाँ को फूँक न देगी ये गर्मी-ए-बाज़ार

यही है ज़ीनत-ओ-आराइश उरूस-ए-सुख़न
मगर फ़रेब भी देती है शोख़ी-ए-गुफ़्तार