खुले हैं मश्रिक-ओ-मग़रिब की गोद में गुलज़ार
मगर ख़िज़ाँ को मयस्सर नहीं यक़ीन-ए-बहार
ख़बर नहीं है बमों के बनाने वालों को
तमीज़ हो तो मह-ओ-मेहर-ओ-कहकशाँ हैं शिकार
उसी से तेग़-ए-निगह आब-दार होती है
तुझे बताऊँ बड़ी शय है जुरअत-ए-इंकार
किए हैं शौक़ ने पैदा हज़ार वीराने
इक आरज़ू ने बसाए हैं लाख शहर-ए-दयार
नशात-ए-सुब्ह-ए-बहाराँ तुझे नसीब नहीं
तिरे निगह में है बीती हुई शबों का ख़ुमार
फ़रोख़्त होती है इंसानियत सी जिंस-ए-गिराँ
जहाँ को फूँक न देगी ये गर्मी-ए-बाज़ार
यही है ज़ीनत-ओ-आराइश उरूस-ए-सुख़न
मगर फ़रेब भी देती है शोख़ी-ए-गुफ़्तार
ग़ज़ल
खुले हैं मश्रिक-ओ-मग़रिब की गोद में गुलज़ार
अली सरदार जाफ़री