ख़ुदी वो बहर है जिस का कोई किनारा नहीं
तू आबजू इसे समझा अगर तो चारा नहीं
तिलिस्म-ए-गुंबद-ए-गर्दूं को तोड़ सकते हैं
ज़ुजाज की ये इमारत है संग-ए-ख़ारा नहीं
ख़ुदी में डूबते हैं फिर उभर भी आते हैं
मगर ये हौसला-ए-मर्द-ए-हेच-कारा नहीं
तिरे मक़ाम को अंजुम-शनास क्या जाने
कि ख़ाक-ए-ज़ि़ंदा है तू ताबा-ए-सितारा नहीं
यहीं बहिश्त भी है हूर ओ जिबरईल भी है
तिरी निगह में अभी शोख़ी-ए-नज़ारा नहीं
मिरे जुनूँ ने ज़माने को ख़ूब पहचाना
वो पैरहन मुझे बख़्शा कि पारा पारा नहीं
ग़ज़ब है ऐन-ए-करम में बख़ील है फ़ितरत
कि लाल-ए-नाब में आतिश तो है शरारा नहीं
ग़ज़ल
ख़ुदी वो बहर है जिस का कोई किनारा नहीं
अल्लामा इक़बाल