ख़ुदा की कौन सी है राह बेहतर जानता है
मज़ा है नेकियों में क्या क़लंदर जानता है
बहुत हमदर्द हैं मेरे मगर अंजान हैं सब
मिरे ज़ख़्मों की हालत को रफ़ूगर जानता है
किसी से मैं नहीं कहता मगर मेरी ग़रीबी
मिरी दीवारों का उखड़ा प्लस्तर जानता है
कभी मंदिर कभी मस्जिद पे है इस का बसेरा
धरम इंसानियत का बस कबूतर जानता है
सनम तेरी जुदाई में कटा है वक़्त मुश्किल
गिने दिन हिज्र में कितने कैलेंडर जानता है
कहीं भर पेट रोटी तो कहीं से हाथ ख़ाली
किसी की कैसी है निय्यत गदागर जानता है
मैं प्यासा रह के भी मिन्नत नहीं करता किसी की
बहुत ख़ुद्दार हूँ मैं ये समुंदर जानता है
किसी भी वक़्त ये मज़लूम कर देंगे बग़ावत
सितम की हो चुकी है हद सितमगर जानता है
रहें अर्थी से बाहर हाथ उस का क़ौल है ये
न कुछ भी साथ जाएगा सिकंदर जानता है
तुम्हारी याद में रातें कटी हैं मुश्किलों से
रहा हूँ कितना मैं बेचैन बिस्तर जानता है
न होगा दूसरा पैदा जहाँ में कोई गाँधी
बहुत अच्छी तरह से पोरबंदर जानता है
यहाँ है भीड़ में भी किस क़दर हर शख़्स तन्हा
तुम्हारे शहर का हर एक मंज़र जानता है
'अहद' जीने को तो सब जी रहे हैं इस जहाँ में
मगर इस ज़ीस्त का मतलब सुख़नवर जानता है
ग़ज़ल
ख़ुदा की कौन सी है राह बेहतर जानता है
अमित अहद