ख़ुदा भी तरफ़-दार निकला तुम्हारा
ये झगड़ा चुका अब हमारा तुम्हारा
बुतो शौक़-ए-दीदार से सर न चढ़ना
नज़ारा किसी का तमाशा तुम्हारा
बड़े बा-हया और पर्दा-नशीं हो
है हर कू-ओ-बर्ज़न में चर्चा तुम्हारा
उलू में ही झूटा हूँ पैमाँ-शिकन हूँ
नहीं अब तो कुछ मुझ से शिकवा तुम्हारा
दिल आए न क्यूँ क्यूँ न ईमान जाए
ये सूरत तुम्हारी ये ग़म्ज़ा तुम्हारा
दिल-ओ-जान 'कैफ़ी' है क़ुर्बान तुम पर
नहीं इस से इंकार ज़ेबा तुम्हारा
ग़ज़ल
ख़ुदा भी तरफ़-दार निकला तुम्हारा
दत्तात्रिया कैफ़ी