ख़ुदा असर से बचाए इस आस्ताने को
दुआ चली है मिरी क़िस्मत आज़माने को
न पूछिए कि मोहब्बत में मुझ पे क्या गुज़री
न छेड़िए मिरे भूले हुए फ़साने को
ये शोबदे ये करिश्मे किसे मयस्सर थे
तिरी निगाह ने सिखला दिए ज़माने को
चमन में बर्क़ ने झाँका कि हम लरज़ उठे
अब इस से आग ही लग जाए आशियाने को
ख़याल-ए-यार भी खोया हुआ सा रहता है
अब उन की याद भी आती है भूल जाने को
निगाह-ए-लुत्फ़ न फ़रमा निगाह-ए-नाज़ के बाद
जिगर में आग लगा कर न आ बुझाने को
ज़माना बर-सर-ए-आज़ार था मगर 'फ़ानी'
तड़प के हम ने भी तड़पा दिया ज़माने को
ग़ज़ल
ख़ुदा असर से बचाए इस आस्ताने को
फ़ानी बदायुनी