ख़ुद तर्क-ए-मुद्दआ पर मजबूर हो गया हूँ
तक़दीर के लिखे से मा'ज़ूर हो गया हूँ
अपनी ख़ुदी की धुन में मंसूर हो गया हूँ
ख़ुद बन गया हूँ जल्वा ख़ुद तूर हो गया हूँ
उन को भुला रहा हूँ वो याद आ रहे हैं
किस दर्जा दिल के हाथों मजबूर हो गया हूँ
सब मिट गईं उमीदें सब पिस गईं उमंगें
दिल की शिकस्तगी से ख़ुद चोर हो गया हूँ
पछता रहा हूँ उन को फ़ुर्क़त में याद कर के
वो पास आ गए हैं मैं दूर हो गया हूँ
मायूस हो चुका हूँ उम्मीद की झलक से
मैं जब्र करते करते मजबूर हो गया हूँ
'तालिब' शिकस्त-ए-दिल की इक आख़िरी सदा पर
दुनिया समझ रही है मंसूर हो गया हूँ

ग़ज़ल
ख़ुद तर्क-ए-मुद्दआ पर मजबूर हो गया हूँ
तालिब बाग़पती