ख़ुद पुकारेगी जो मंज़िल तो ठहर जाऊँगा
वर्ना ख़ुद्दार मुसाफ़िर हूँ गुज़र जाऊँगा
आँधियों का मुझे क्या ख़ौफ़ मैं पत्थर ठहरा
रेत का ढेर नहीं हूँ जो बिखर जाऊँगा
ज़िंदगी अपनी किताबों में छुपा ले वर्ना
तेरे औराक़ के मानिंद बिखर जाऊँगा
मैं हूँ अब तेरे ख़यालात का इक अक्स-ए-जमील
आईना-ख़ाने से निकला तो किधर जाऊँगा
मुझ को हालात में उलझा हुआ रहने दे यूँही
मैं तिरी ज़ुल्फ़ नहीं हूँ जो सँवर जाऊँगा
तेज़-रफ़्तार सही लाख मिरा अज़्म-ए-सफ़र
वक़्त आवाज़ जो देगा तो ठहर जाऊँगा
दम न लेने की क़सम खाई है मैं ने 'रज़्मी'
मुझ को मंज़िल भी पुकारे तो गुज़र जाऊँगा
ग़ज़ल
ख़ुद पुकारेगी जो मंज़िल तो ठहर जाऊँगा
मुज़फ़्फ़र रज़्मी