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ख़ुद मज़ेदार तबीअ'त है तो सामाँ कैसा | शाही शायरी
KHud mazedar tabiat hai to saman kaisa

ग़ज़ल

ख़ुद मज़ेदार तबीअ'त है तो सामाँ कैसा

आग़ा अकबराबादी

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ख़ुद मज़ेदार तबीअ'त है तो सामाँ कैसा
ज़ख़्म-ए-दिल आप हैं शोरिश पे नमक-दाँ कैसा

हाथ वहशत में न पोंछे तो गरेबाँ कैसा
ख़ार-ए-सहरा से न उलझे तो वो दामाँ कैसा

कूचा-ए-यार को दावा है कि जन्नत मैं हूँ
ख़ुल्द कहते हैं किसे रौज़ा-ए-रिज़वाँ कैसा

उसी माबूद का है दैर-ओ-हरम में जल्वा
बहस किस बात की है गब्र ओ मुसलमाँ कैसा

वादा-ए-बादा-ए-अतहर का भरोसा कब तक
चल के भट्टी पे पिएँ जुर'आ-ए-इरफ़ाँ कैसा

हम हुए 'क़ैस' हुए 'वामिक़' ओ 'फ़रहाद' हुए
ज़ुल्फ़-ए-पुर-ख़म ने किया सब को परेशाँ कैसा

दूर के ढोल हैं यूसुफ़ की कहानी साहब
किस को मा'लूम है होगा मह-ए-कनआँ' कैसा

तेरे क़ुर्बान मैं इतना तो बता दे क़ातिल
मेरी गर्दन पे चला ख़ंजर-ए-बुर्रां कैसा

दिल के आईने में तस्वीर-ए-सनम रखता है
नहीं मा'लूम कि 'आग़ा' है मुसलमाँ कैसा