ख़ुद अपनी ज़ात का नाम-ओ-निशान भूल गए
रिहा हुए तो परिंदे उड़ान भूल गए
इस इंहिमाक से कार-ए-ज़मीं में महव हुए
ज़मीं पे छाया हुआ आसमान भूल गए
हर इम्तिहान में पहला सबक़ तो याद आया
किताब-ए-इश्क़ कहीं दरमियान भूल गए
न ठहरना ही मुनासिब न उठ के जाना ही
बला के घर में हमें मेज़बान भूल गए
उस अजनबी की रिफ़ाक़त में ऐसी ख़ुशबू थी
हम अपने सारे सफ़र की थकान भूल गए
न कर नुमूद की ख़्वाहिश कि ये जहाँ वाले
बड़े-बड़ों का भी नाम-ओ-निशान भूल गए
कुछ इस तरह ग़म-ए-उम्र-ए-रवाँ ने ख़ाक किया
फ़िराक़-ओ-वस्ल की सब दास्तान भूल गए
ग़ज़ल
ख़ुद अपनी ज़ात का नाम-ओ-निशान भूल गए
जमील यूसुफ़