EN اردو
ख़ुद अपने आप से ये गिला उम्र भर किया | शाही शायरी
KHud apne aap se ye gila umr bhar kiya

ग़ज़ल

ख़ुद अपने आप से ये गिला उम्र भर किया

मोहसिन एहसान

;

ख़ुद अपने आप से ये गिला उम्र भर किया
कैसे तिरे फ़िराक़ का मौसम बसर किया

मिन्क़ार से हवा ने लिखी दास्तान-ए-हिज्र
यूँ हर्फ़-ए-मो'तबर को भी ना-मो'तबर किया

कैसी हवा चली कि मअन बारिशों के बा'द
हर बे-गुलाब रुत ने गुलिस्ताँ में घर किया

ख़ुद हम ने काट काट दी ज़ंजीर साँस की
ख़ुद हम ने ज़िंदगी का सफ़र मुख़्तसर किया

बे-आब आइनों को भी इक आब बख़्श दी
हर चंद बे-हुनर थे ये कार-ए-हुनर किया

सारे सुतून रेत की बुनियाद पर उठाए
हम ने किस एहतियात से ता'मीर घर किया

दुनिया सिमट के एक ही नुक्ते में आ गई
हम ने जब अपनी ज़ात के अंदर सफ़र किया

था मीर जी को इज़्ज़त-ए-सादात का ख़याल
हम ने सुख़न को जिंस-ए-दूकान-ए-हुनर किया

मौक़ा-शनास क़स्र-ए-हवस में पहुँच गए
तय मरहला उड़ान का बे-बाल-ओ-पर किया

ख़ुशबू मिरे बदन से ख़ुद आ कर लिपट गई
'मोहसिन' ये किस दयार से मैं ने गुज़र किया