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ख़ुद अपना हाल दिल-ए-मुब्तला से कुछ न कहा | शाही शायरी
KHud apna haal dil-e-mubtala se kuchh na kaha

ग़ज़ल

ख़ुद अपना हाल दिल-ए-मुब्तला से कुछ न कहा

शाज़ तमकनत

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ख़ुद अपना हाल दिल-ए-मुब्तला से कुछ न कहा
दुआ से हाथ उठाए ख़ुदा से कुछ न कहा

किसे सुनाऊँ कि ना-साज़ है जुनूँ का मिज़ाज
ख़ुद अपने शहर की आब-ओ-हवा से कुछ न कहा

ये किस से इश्क़ हुआ क्यूँ हुआ तअज्जुब है
वो ख़ौफ़ है कि किसी आश्ना से कुछ न कहा

ये होश है कि गुज़र जाएगी फुवार की रुत
मगर ये ज़ोम कि ऊदी घटा से कुछ न कहा

तिरे ख़िराम को देखा ब-चशम-ए-हसरत-ओ-यास
तमाम उम्र तिरे नक़्श-ए-पा से कुछ न कहा

खुले तो कैसे खुले राज़-ए-उन्फ़ुवान-ए-शबाब
हया ने क्या तिरे बंद-ए-क़बा से कुछ न कहा

वो क्या अदा थी कि लहलोट हो गए तुम 'शाज़'
ग़ज़ब किया उसी जान-ए-अदा से कुछ न कहा