ख़ुद अपना ए'तिबार गँवाता रहा हूँ मैं
ज़र्रे को आफ़्ताब बताता रहा हूँ मैं
अंधी हवा को दूँ कोई इल्ज़ाम किस लिए
अपने दिए को आप बुझाता रहा हूँ मैं
इक उम्र के रियाज़ का हासिल न पूछिए
रेग-ए-रवाँ पे नक़्श बनाता रहा हूँ मैं
हर चंद मस्लहत का तक़ाज़ा कुछ और था
आईना हर किसी को दिखाता रहा हूँ मैं
बच्चों के हँसते-खेलते चेहरों की ओट में
अपने दुखों की टीस छुपाता रहा हूँ मैं
ये और बात ख़ुद मिरे पाँव न उठ सके
औरों को रास्ता तो दिखाता रहा हूँ मैं
'सैफ़ी' फ़िशार-ए-ग़म की तमाज़त के बावजूद
हैरत है अपनी बात निभाता रहूँ मैं
ग़ज़ल
ख़ुद अपना ए'तिबार गँवाता रहा हूँ मैं
बशीर सैफ़ी