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खोता ही नहीं है हवस-ए-मतअम-ओ-मलबस | शाही शायरी
khota hi nahin hai hawas-e-matam-o-malbas

ग़ज़ल

खोता ही नहीं है हवस-ए-मतअम-ओ-मलबस

ताबाँ अब्दुल हई

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खोता ही नहीं है हवस-ए-मतअम-ओ-मलबस
ये नफ़्स-ए-हवसनाक ओ बद-आमोज़-ओ-मुहव्वस

बे-शुबह तिरी ज़ात ख़ुदावंद-ए-ख़लाइक़
आ'ला है तआ'ला है मुअ'ल्ला है मुक़द्दस

वो काम तू कर जिस से तिरी गोर हो गुलज़ार
क्या ख़ाना-ए-दीवार को करता है मुक़र्नस

मदफ़न के तईं आगे ही मुनइ'म न बिना रख
क्या जानिए वाँ दफ़्न हो या खाएगा कर्गस

है वस्ल तिरा जन्नत-ओ-दोज़ख़ ही जुदा है
जाने है कब इस बाब के तईं हर कस-ओ-ना-कस

तस्वीर तिरे पंजा-ए-सीमीं की तला से
दीवान में है मेरे लिखी जाए मुख़म्मस

कहने को मिरे दिल के सुन ऐ गुलशन-ए-ख़ूबी
गर है तो तिरे को है ये फ़िरदौस ये मुरदस

सुन सुन के तिरा शोर वो बेज़ार हुआ और
नाले का असर तेरे दिला देख लिया बस

इस जुब्बा-ओ-अम्मामा से रिंदों में न आओ
रुस्वा न करो शैख़-जी ये शक्ल-ए-मुक़द्दस

मानिंद-ए-कमाँ ख़म न करूँ क़द को तमअ' से
गर्दिश में रखे गो मुझे ये चर्ख़-ए-मुक़व्वस

हर रात है आशिक़ को तिरे रोज़-ए-क़यामत
हर रोज़ जुदाई में उसे हो है हुनद्दस

'ताबाँ' ये ग़ज़ल अहल-ए-शुऊरों के लिए है
अहमक़ न कोई समझे तो जाने मिरा धंदस