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ख़िलाफ़ सारी लकीरें थीं हाथ मलते क्या | शाही शायरी
KHilaf sari lakiren thin hath malte kya

ग़ज़ल

ख़िलाफ़ सारी लकीरें थीं हाथ मलते क्या

राशिद अनवर राशिद

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ख़िलाफ़ सारी लकीरें थीं हाथ मलते क्या
जमी थी चेहरे पे गर्द आइना बदलते क्या

हवाएँ राह में डेरा जमाए बैठी थीं
चराग़-ए-दिल को लिए दो-क़दम भी चलते क्या

युगों से जिस्म के अंदर अलाव रौशन है
किसी की आँच से मेरे हवास जलते क्या

चली वो आँधी कि जंगल भी काँप काँप उठा
कि हम तो शाख़ से टूटे थे फिर सँभलते क्या

पड़ी किरन तो नदी बन गई पहाड़ की बर्फ़
वो ठहरे संग ज़रा देर में पिघलते क्या

नदी के दोनों किनारे हैं आस-पास मगर
जनम के फ़ासले थे क़ुर्बतों में ढलते क्या