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ख़याल-ओ-ख़्वाब में आए हुए से लगते हैं | शाही शायरी
KHayal-o-KHwab mein aae hue se lagte hain

ग़ज़ल

ख़याल-ओ-ख़्वाब में आए हुए से लगते हैं

काशिफ़ हुसैन ग़ाएर

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ख़याल-ओ-ख़्वाब में आए हुए से लगते हैं
हमें ये दिन भी बिताए हुए से लगते हैं

तिरे हुज़ूर खड़े हैं जो सर झुकाए हुए
ज़मीं का बोझ उठाए हुए से लगते हैं

दिए हों फूल हों बादल हों या परिंदे हों
ये सब हवा के सताए हुए से लगते हैं

हमारे दिल की तरह शहर के ये रस्ते भी
हज़ार भेद छुपाए हुए से लगते हैं

हर एक राह-नवर्द ओ शिकस्ता-पा के लिए
ये पेड़ हाथ बढ़ाए हुए से लगते हैं

हर आन रूनुमा होते ये वाक़िए ग़ाएर
हमारा ध्यान बटाए हुए से लगते हैं