ख़याल-ओ-ख़्वाब को पाबंद-ए-ख़ू-ए-यार रखा
सो दिल को दिल की जगह हम ने बार बार रक्खा
उसे भी मैं ने बहुत ख़ुद पे इख़्तियार दिए
और इस तरह कि बहुत ख़ुद पे इख़्तियार रखा
दुखों का क्या है मुझे फ़िक्र है कि उस ने क्यूँ
बिछड़ते वक़्त भी लहजे को ख़ुश-गवार रखा
हवा चराग़ बुझाने लगी तो हम ने भी
दिए की लौ की जगह तेरा इंतिज़ार रखा
छुपा के रख लिए अंदर के अपने दुख 'मोहसिन'
और अपनी ज़ाहिरी हालत को भी सँवार रखा
ग़ज़ल
ख़याल-ओ-ख़्वाब को पाबंद-ए-ख़ू-ए-यार रखा
मोहसिन असरार