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ख़याल-ओ-ख़्वाब के सब रंग भर के देखते हैं | शाही शायरी
KHayal-o-KHwab ke sab rang bhar ke dekhte hain

ग़ज़ल

ख़याल-ओ-ख़्वाब के सब रंग भर के देखते हैं

इज़हार वारसी

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ख़याल-ओ-ख़्वाब के सब रंग भर के देखते हैं
हम उस की याद को तस्वीर कर के देखते हैं

जहाँ जहाँ हैं ज़मीं पर क़दम-निशाँ उस के
हर उस जगह को सितारे उतर के देखते हैं

हवा है तेज़ सँभालेगा इन में कितनों को
शजर का हौसला पत्ते शजर के देखते हैं

उसे भी शौक़ है कुछ धज्जियाँ उड़ाने का
कुछ अपनी वुसअतें हम भी बिखर के देखते हैं

इधर के सुख ने तो हिजरत पे कर दिया मजबूर
उधर है क्या चलो दरिया उतर के देखते हैं

गए थे छोड़ के हम जिस जगह मकाँ अपना
निशाँ बस अब वहाँ दीवार-ओ-दर के देखते हैं

न यूँ मिटा सके शायद हमें जो वो दिलदार
है संग-दिल तो सर-ए-संग उभर के देखते हैं