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ख़याल-ओ-ख़्वाब हुई हैं मोहब्बतें कैसी | शाही शायरी
KHayal-o-KHwab hui hain mohabbaten kaisi

ग़ज़ल

ख़याल-ओ-ख़्वाब हुई हैं मोहब्बतें कैसी

उबैदुल्लाह अलीम

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ख़याल-ओ-ख़्वाब हुई हैं मोहब्बतें कैसी
लहू में नाच रही हैं ये वहशतें कैसी

न शब को चाँद ही अच्छा न दिन को मेहर अच्छा
ये हम पे बीत रही हैं क़यामतें कैसी

वो साथ था तो ख़ुदा भी था मेहरबाँ क्या क्या
बिछड़ गया तो हुई हैं अदावतें कैसी

अज़ाब जिन का तबस्सुम सवाब जिन की निगाह
खिंची हुई हैं पस-ए-जाँ ये सूरतें कैसी

हवा के दोश पे रक्खे हुए चराग़ हैं हम
जो बुझ गए तो हवा से शिकायतें कैसी

जो बे-ख़बर कोई गुज़रा तो ये सदा दे दी
मैं संग-ए-राह हूँ मुझ पर इनायतें कैसी

नहीं कि हुस्न ही नैरंगियों में ताक़ नहीं
जुनूँ भी खेल रहा है सियासतें कैसी

न साहबान-ए-जुनूँ हैं न अहल-ए-कश्फ़-ओ-कमाल
हमारे अहद में आईं कसाफ़तें कैसी

जो अब्र है वही अब संग-ओ-ख़िश्त लाता है
फ़ज़ा ये हो तो दिलों में नज़ाकतें कैसी

ये दौर-ए-बे-हुनराँ है बचा रखो ख़ुद को
यहाँ सदाक़तें कैसी करामतें कैसी