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ख़याल हिज्र-ए-मुसलसल में आए हैं क्या क्या | शाही शायरी
KHayal hijr-e-musalsal mein aae hain kya kya

ग़ज़ल

ख़याल हिज्र-ए-मुसलसल में आए हैं क्या क्या

सरशार सिद्दीक़ी

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ख़याल हिज्र-ए-मुसलसल में आए हैं क्या क्या
मिरी वफ़ा के क़दम डगमगाए हैं क्या क्या

न सिर्फ़ हुस्न की मासूमियत पे थे इल्ज़ाम
ख़ुलूस-ए-इश्क़ पे भी हर्फ़ आए हैं क्या क्या

जुनूँ के नाम पे शोरिश की तोहमतें रख कर
ख़िरद ने ख़ुद भी तो फ़ित्ने उठाए हैं क्या क्या

इस इक नज़र से ब-ज़ाहिर जो मुल्तफ़ित भी न थी
मिरी निगाह ने पैग़ाम पाए हैं क्या क्या