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ख़याल-ए-तर्क-ए-तमन्ना न कर सके तू भी | शाही शायरी
KHayal-e-tark-e-tamanna na kar sake tu bhi

ग़ज़ल

ख़याल-ए-तर्क-ए-तमन्ना न कर सके तू भी

नासिर काज़मी

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ख़याल-ए-तर्क-ए-तमन्ना न कर सके तू भी
उदासियों का मुदावा न कर सके तू भी

कभी वो वक़्त भी आए कि कोई लम्हा-ए-ऐश
मिरे बग़ैर गवारा न कर सके तू भी

ख़ुदा वो दिन न दिखाए तुझे कि मेरी तरह
मिरी वफ़ा पे भरोसा न कर सके तू भी

मैं अपना उक़्दा-ए-दिल तुझ को सौंप देता हूँ
बड़ा मज़ा हो अगर वा न कर सके तू भी

तुझे ये ग़म कि मिरी ज़िंदगी का क्या होगा
मुझे ये ज़िद कि मुदावा न कर सके तू भी

न कर ख़याल-ए-तलाफ़ी कि मेरा ज़ख़्म-ए-वफ़ा
वो ज़ख़्म है जिसे अच्छा न कर सके तू भी