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ख़रीदार अपना हम को जानते हो | शाही शायरी
KHaridar apna hum ko jaante ho

ग़ज़ल

ख़रीदार अपना हम को जानते हो

मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी

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ख़रीदार अपना हम को जानते हो
भला इतना तो तुम पहचानते हो

बनेगा चेहरा ये किस का मह ओ महर
जो तुम बैठे सबाहत छानते हो

उठो ऐ ज़ख़्मियान-ए-कूचा-ए-यार
अबस क्यूँ ख़ूँ में माटी सानते हो

वो आने का नहीं अब घर से बाहर
तुम उस क़ातिल को कम पहचानते हो

यका-यक कर गुज़रते हो वही जान
तुम अपने जी में जो कुछ ठानते हो

ग़रज़ हो आश्ना अपनी ही ज़िद के
किसी की बात को कब मानते हो

गया है क़ाफ़िला म्याँ 'मुसहफ़ी' अब
अबस दामन को तुम गरदानते हो