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ख़राबा एक दिन बन जाए घर ऐसा नहीं होगा | शाही शायरी
KHaraba ek din ban jae ghar aisa nahin hoga

ग़ज़ल

ख़राबा एक दिन बन जाए घर ऐसा नहीं होगा

इरफ़ान सिद्दीक़ी

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ख़राबा एक दिन बन जाए घर ऐसा नहीं होगा
अचानक जी उठें वो बाम-ओ-दर ऐसा नहीं होगा

वो सब इक बुझने वाले शोला-ए-जाँ का तमाशा था
दोबारा हो वही रक़्स-ए-शरर ऐसा नहीं होगा

वो सारी बस्तियाँ वो सारे चेहरे ख़ाक से निकलें
ये दुनिया फिर से हो ज़ेर-ओ-ज़बर ऐसा नहीं होगा

मिरे गुम-गशतगाँ को ले गई मौज-ए-रवाँ कोई
मुझे मिल जाए फिर गंज-ए-गुहर ऐसा नहीं होगा

ख़राबों में अब उन की जुस्तुजू का सिलसिला क्या है
मिरे गर्दूं-शिकार आएँ इधर ऐसा नहीं होगा

हयूले रात भर मेहराब-ओ-दर में फिरते रहते हैं
में समझा था कि अपने घर में डर ऐसा नहीं होगा

मैं थक जाऊँ तो बाज़ू-ए-हवा मुझ को सहारा दे
गिरूँ तो थाम ले शाख़-ए-शजर ऐसा नहीं होगा

कोई हर्फ़-ए-दुआ मेरे लिए पतवार बन जाए
बचा ले डूबने से चश्म-ए-तर ऐसा नहीं होगा

कोई आज़ार पहले भी रहा होगा मिरे दिल को
रहा होगा मगर ऐ चारा-गर ऐसा नहीं होगा

ब-हद्द-ए-वुसअत-ए-ज़ंजीर गर्दिश करता रहता हूँ
कोई वहशी गिरफ़्तार-ए-सफ़र ऐसा नहीं होगा

बदायूँ तेरी मिट्टी से बिछड़ कर जी रहा हूँ मैं
नहीं ऐ जान-ए-मन, बार-ए-दिगर ऐसा नहीं होगा