ख़राबा एक दिन बन जाए घर ऐसा नहीं होगा
अचानक जी उठें वो बाम-ओ-दर ऐसा नहीं होगा
वो सब इक बुझने वाले शोला-ए-जाँ का तमाशा था
दोबारा हो वही रक़्स-ए-शरर ऐसा नहीं होगा
वो सारी बस्तियाँ वो सारे चेहरे ख़ाक से निकलें
ये दुनिया फिर से हो ज़ेर-ओ-ज़बर ऐसा नहीं होगा
मिरे गुम-गशतगाँ को ले गई मौज-ए-रवाँ कोई
मुझे मिल जाए फिर गंज-ए-गुहर ऐसा नहीं होगा
ख़राबों में अब उन की जुस्तुजू का सिलसिला क्या है
मिरे गर्दूं-शिकार आएँ इधर ऐसा नहीं होगा
हयूले रात भर मेहराब-ओ-दर में फिरते रहते हैं
में समझा था कि अपने घर में डर ऐसा नहीं होगा
मैं थक जाऊँ तो बाज़ू-ए-हवा मुझ को सहारा दे
गिरूँ तो थाम ले शाख़-ए-शजर ऐसा नहीं होगा
कोई हर्फ़-ए-दुआ मेरे लिए पतवार बन जाए
बचा ले डूबने से चश्म-ए-तर ऐसा नहीं होगा
कोई आज़ार पहले भी रहा होगा मिरे दिल को
रहा होगा मगर ऐ चारा-गर ऐसा नहीं होगा
ब-हद्द-ए-वुसअत-ए-ज़ंजीर गर्दिश करता रहता हूँ
कोई वहशी गिरफ़्तार-ए-सफ़र ऐसा नहीं होगा
बदायूँ तेरी मिट्टी से बिछड़ कर जी रहा हूँ मैं
नहीं ऐ जान-ए-मन, बार-ए-दिगर ऐसा नहीं होगा
ग़ज़ल
ख़राबा एक दिन बन जाए घर ऐसा नहीं होगा
इरफ़ान सिद्दीक़ी