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ख़राब-ए-इश्क़ सही आलम-ए-शुहूद में हूँ | शाही शायरी
KHarab-e-ishq sahi aalam-e-shuhud mein hun

ग़ज़ल

ख़राब-ए-इश्क़ सही आलम-ए-शुहूद में हूँ

रज़ा हमदानी

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ख़राब-ए-इश्क़ सही आलम-ए-शुहूद में हूँ
हूँ अश्क अश्क मगर अपने ही वजूद में हूँ

किसी ने नग़्मों में तहलील कर दिया है मुझे
न गुनगुनाओ कि मैं पर्दा-ए-सुरूद में हूँ

तू अपनी ज़ात से मुझ को अलग न जान कि मैं
तिरे जमाल की निकहत के तार-ओ-पूद में हूँ

हज़ार रंग में देखा है मुझ को दुनिया ने
अज़ल से ता-ब-अबद नश्शा-ए-वरूद में हूँ

ख़ुद अपनी ज़ात का इरफ़ाँ न हो सका मुझ को
अभी मैं कश्मकश-ए-दाम-ए-हस्त-ओ-बूद में हूँ