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ख़ैर का तुझ को यक़ीं है और उस को शर का है | शाही शायरी
KHair ka tujhko yaqin hai aur usko shar ka hai

ग़ज़ल

ख़ैर का तुझ को यक़ीं है और उस को शर का है

सलीम अहमद

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ख़ैर का तुझ को यक़ीं है और उस को शर का है
दोनों हक़ पर हैं कि झगड़ा सिर्फ़ पस-मंज़र का है

आँसुओं से तू है ख़ाली दर्द से आरी हूँ मैं
तेरी आँखें काँच की हैं मेरा दिल पत्थर का है

कौन दफ़नाता उसे वो इक बरहना लाश थी
सब ने पूछा कौन है वो कौन से लश्कर का है

तू सुकूँ से थक गया है और बेताबी से मैं
शौक़ है तुझ को सफ़र का और मुझ को घर का है

एक पौदा सेहन में था धूप खा कर जल गया
सिर्फ़ मेरा ही नहीं है रंज ये घर भर का है

सोचता रहता हूँ मैं तेरी उड़ानें देख कर
ये हवा का ज़ोर है या तेरे बाल-ओ-पर का है

एक बूढ़े ने किया अस्र-ए-रवाँ पे तब्सिरा
ये ज़माना आदमी का है कि ज़ोर-ओ-ज़र का है

मैं ने सींचा है लहू से इस दिल-ए-सर-सब्ज़ को
उम्र भर से ये इलाक़ा मेरी चश्म-ए-तर का है

मैं सिमट कर लेटता हूँ बिस्तर-ए-इदराक पर
पाँव फैलाऊँ तो अंदेशा मुझे चादर का है

इस मसाफ़त का मुदावा तुझ से भी मुमकिन नहीं
ज़ख़्म-ए-दिल से कुछ ज़ियादा ज़ख़्म मेरे सर का है

इक तबीब-ए-आदमियत ने कहा है साफ़ साफ़
ज़हर दुनिया की रगों में सब फ़साद-ए-ज़र का है

देख कर इंसान को कहती है सारी काएनात
ये तो हम में से नहीं है ये कोई बाहर का है

सारी कड़ियाँ तोड़ दीं मैं ने मोहब्बत के सिवा
कौन तोड़ेगा इसे ये जब्र तो अंदर का है