EN اردو
खड़ा न सुन के सदा मेरी एक यार रहा | शाही शायरी
khaDa na sun ke sada meri ek yar raha

ग़ज़ल

खड़ा न सुन के सदा मेरी एक यार रहा

मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी

;

खड़ा न सुन के सदा मेरी एक यार रहा
मैं रह-रवान-ए-अदम को बहुत पुकार रहा

क़फ़स से छोड़े है अब मुझ को क्या तू ऐ सय्याद
चमन के बीच कहाँ मौसम-ए-बहार रहा

पस-अज़-वफ़ात भी अपनी हुईं न आँखें बंद
ज़ि-बस कि तेरे ही आने का इंतिज़ार रहा

ख़ुदा के वास्ते अब इस से हाथ उठा कि मिरे
जिगर में नम नहीं ऐ चश्म-ए-अश्क-बार रहा

हुआ तू ग़ैर से जब हम-कनार मेरे साथ
कहाँ वो वादा रहा और कहाँ क़रार रहा

करूँ जो चाक गरेबाँ को अपने हूँ मजबूर
कि मेरे हाथ में मेरा न इख़्तियार रहा

न सैर-ए-लाला-ओ-गुल हम को कुछ नज़र आई
कि नोक-ए-हर-मिज़ा पर याँ दिल-फ़िगार रहा

गली में उस की गए और वहाँ से फिर आए
तमाम उम्र यही अपना कारोबार रहा

ग़ज़ल इक और भी ऐ 'मुसहफ़ी' सुना दे तू
कोई कहे न कि बंदा उम्मीद-वार रहा