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ख़ातिर करे है जमा वो हर बार एक तरह | शाही शायरी
KHatir kare hai jama wo har bar ek tarah

ग़ज़ल

ख़ातिर करे है जमा वो हर बार एक तरह

मीर तक़ी मीर

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ख़ातिर करे है जमा वो हर बार एक तरह
करता है चर्ख़ मुझ से नए यार एक तरह

मैं और क़ैस ओ कोहकन अब जो ज़बाँ पे हैं
मारे गए हैं सब ये गुनहगार एक तरह

मंज़ूर उस को पर्दे में हैं बे-हिजाबियाँ
किस से हुआ दो-चार वो अय्यार एक तरह

सब तरहें उस की अपनी नज़र में थीं क्या कहें
पर हम भी हो गए हैं गिरफ़्तार एक तरह

घर उस के जा के आते हैं पामाल हो के हम
करिए मकाँ ही अब सर-ए-बाज़ार एक तरह

गह गुल है गाह रंग गहे बाग़ की है बू
आता नहीं नज़र वो तरह-दार एक तरह

नैरंग हुस्न-ए-दोस्त से कर आँखें आश्ना
मुमकिन नहीं वगरना हो दीदार एक तरह

सौ तरह तरह देख तबीबों ने ये कहा
सेहत पज़ीर हुए ये बीमार एक तरह

सो भी हज़ार तरह से ठहरवाते हैं हम
तस्कीन के लिए तिरी नाचार एक तरह

बिन जी दिए हो कोई तरह फ़ाएदा नहीं
गर है तो ये है ऐ जिगर अफ़गार एक तरह

हर तरह तू ज़लील ही रखता है 'मीर' को
होता है आशिक़ी में कोई ख़्वार एक तरह