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ख़ाल-ए-रुख़ उस ने दिखाया न दोबारा अपना | शाही शायरी
Khaal-e-ruKH usne dikhaya na dobara apna

ग़ज़ल

ख़ाल-ए-रुख़ उस ने दिखाया न दोबारा अपना

शाह नसीर

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ख़ाल-ए-रुख़ उस ने दिखाया न दोबारा अपना
चंदे इक और है गर्दिश में सितारा अपना

दिल ओ दीन व ख़िरद ओ सब्र कुजा कू आराम
घर लुटा हम ने दिया इश्क़ में सारा अपना

बोली सय्याद से बुलबुल कि न कर गुल से जुदा
तख़्ता-ए-बाग़ है ये तख़्त-ए-हज़ारा अपना

सैर की हम ने जो कल महफ़िल-ए-ख़ामोशाँ की
न तो बेगाना ही बोला न पुकारा अपना

मिस्ल-ए-नय हम ने तो फ़रियाद बहुत की लेकिन
कोई हमदम न हुआ आह हमारा अपना

दिल हुआ चाह-ए-ज़क़न ही में ग़रीक़-ए-रहमत
इस में ग़व्वास-ए-नज़र गरचे उतारा अपना

खुल गया उक़्दा-ए-हस्ती-ओ-अदम मिस्ल-ए-हबाब
लब-ए-दरिया पे हुआ जब कि गुज़ारा अपना

पैरहन उस को हुआ ख़िलअत-ए-शाही कि 'नसीर'
जिस ने ये पैरहन-ए-ख़ाक उतारा अपना