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ख़ाक उन गलियों की पलकों से बहुत छानी थी | शाही शायरी
KHak un galiyon ki palkon se bahut chhani thi

ग़ज़ल

ख़ाक उन गलियों की पलकों से बहुत छानी थी

जलील हश्मी

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ख़ाक उन गलियों की पलकों से बहुत छानी थी
फिर भी सूरत मिरी इस शहर में अन-जानी थी

हम भी कुछ अपनी वफ़ाओं पे हुए थे नादिम
उन को भी तर्क-ए-तअ'ल्लुक़ पे पशेमानी थी

ख़ुद-फ़रेबी तो अलग बात है वर्ना हम ने
अपनी सूरत कहाँ आईने में पहचानी थी

ज़िंदगी संग बनी थी तुझे रुख़्सत कर के
दिल न धड़का था तो मरने में भी आसानी थी

हादिसा सख़्त था जाँकाह था अब के यारो
वर्ना हम ने तो कभी हार नहीं मानी थी

रह गई राह में यूँ शर्म-ए-शिकस्ता-पाई
क्या ठहरते कहीं वो बे-सर-ओ-सामानी थी

ना-रसाई कोई किस आँख से देखे अपनी
हम भी टूटे हुए पर, रात भी तूफ़ानी थी

गुल हुई शम्अ' तो दामन भड़क उट्ठा 'हशमी'
जब नज़र बुझ गई वीरानी ही वीरानी थी