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ख़ाक उड़ती है रात-भर मुझ में | शाही शायरी
KHak uDti hai raat-bhar mujh mein

ग़ज़ल

ख़ाक उड़ती है रात-भर मुझ में

रहमान फ़ारिस

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ख़ाक उड़ती है रात-भर मुझ में
कौन फिरता है दर-ब-दर मुझ में

मुझ को ख़ुद में जगह नहीं मिलती
तू है मौजूद इस क़दर मुझ में

मौसम-ए-गिर्या एक गुज़ारिश है
ग़म के पकने तलक ठहर मुझ में

बे-घरी अब मिरा मुक़द्दर है
इश्क़ ने कर लिया है घर मुझ में

आप का ध्यान ख़ून के मानिंद
दौड़ता है इधर-उधर मुझ में

हौसला हो तो बात बन जाए
हौसला ही नहीं मगर मुझ में