ख़ाक उड़ती है रात-भर मुझ में
कौन फिरता है दर-ब-दर मुझ में
मुझ को ख़ुद में जगह नहीं मिलती
तू है मौजूद इस क़दर मुझ में
मौसम-ए-गिर्या एक गुज़ारिश है
ग़म के पकने तलक ठहर मुझ में
बे-घरी अब मिरा मुक़द्दर है
इश्क़ ने कर लिया है घर मुझ में
आप का ध्यान ख़ून के मानिंद
दौड़ता है इधर-उधर मुझ में
हौसला हो तो बात बन जाए
हौसला ही नहीं मगर मुझ में

ग़ज़ल
ख़ाक उड़ती है रात-भर मुझ में
रहमान फ़ारिस