ख़ाक-दाँ को हासिल-ए-ज़ौक़-ए-नज़र समझा था मैं
ख़्वाब के आलम को कितना मो'तबर समझा था मैं
क्या ख़बर थी मिल के तू मुझ से जुदा हो जाएगा
इस धुँदलके को न जाने क्यूँ सहर समझा था मैं
आज फिरती है नज़र हर राह में भटकी हुई
क्यूँ ग़ुबार-ए-कारवाँ को राहबर समझा था मैं
अपने अंदर देखता था जल्वा-हा-ए-रंग-रंग
जिस्म-ए-ख़ाकी को भी इक शीशे का घर समझा था मैं
आ गया मंज़िल पे हर पत्थर को ठुकराता हुआ
आप के ग़म को हर इक ग़म की सिपर समझा था मैं
मुन्कशिफ़ मुझ पर हुआ 'जामी' वो रहबर था मिरा
जिस हक़ीक़त-आश्ना को बाज़ीगर समझा था मैं

ग़ज़ल
ख़ाक-दाँ को हासिल-ए-ज़ौक़-ए-नज़र समझा था मैं
सय्यद मेराज जामी