कौन था वो ख़्वाब के मल्बूस में लिपटा हुआ
रात के गुम्बद से टकरा कर पलट आई सदा
मैं तो था बिखरा हुआ साहिल की पीली रेत पर
और दरिया में था नीला आसमाँ डूबा हुआ
सोच की सूखी हुई शाख़ों से मुरझाए हुए
टूट कर गिरते हुए लफ़्ज़ों को मैं चुनता रहा
जब भी ख़ुद की खोज में निकला हूँ अपने जिस्म से
काली तन्हाई के जंगल से गुज़रना ही पड़ा
फैलता जाता है ठंडी चाँदनी के साथ साथ
शो'ला शो'ला लज़्ज़तों की तिश्नगी का दायरा
ग़ज़ल
कौन था वो ख़्वाब के मल्बूस में लिपटा हुआ
आदिल मंसूरी