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कौन समझेगा मिरे बा'द इशारे उस के | शाही शायरी
kaun samjhega mere baad ishaare uske

ग़ज़ल

कौन समझेगा मिरे बा'द इशारे उस के

महमूद अज़हर

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कौन समझेगा मिरे बा'द इशारे उस के
टूट कर ख़ाक में मिलते हैं सितारे उस के

अब हमें आँख उठा कर नहीं तकता वो शख़्स
कितने मज़बूत मरासिम थे हमारे उस के

जो समुंदर मिरे अतराफ़ रवाँ है सर-ए-ख़ाक
ढूँढता रहता हूँ दिन-रात किनारे उस के

उस का नुक़सान हक़ीक़त में मिरा अपना है
मेरे हिस्से ही में आते हैं ख़सारे उस के

कितनी आसानी से देखा था उसे पत्थर में
कितनी मुश्किल से ख़द-ओ-ख़ाल सँवारे उस के

सौत में जितना ख़ला है उसे पुर कर दे सदा
इस तसलसुल से कोई नाम पुकारे उस के

ख़त्म हो सकती है 'अज़हर' ये लड़ाई अपनी
अब भी कुछ लोग सलामत हैं हमारे उस के