कौन सा घर है कि ऐ जाँ नहीं काशाना तिरा और जल्वा-ख़ाना तिरा
मै-कदा तेरा है काबा तिरा बुत-ख़ाना तिरा सब है जानाना तिरा
तू किसी शक्ल में हो मैं तिरा शैदाई हूँ तेरा सौदाई हूँ
तू अगर शम्अ है ऐ दोस्त मैं परवाना तिरा यानी दीवाना तिरा
मुझ को भी जाम कोई पीर-ए-ख़राबात मिले तेरी ख़ैरात मिले
ता-क़यामत यूँही जारी रहे पैमाना तिरा रहे मय-ख़ाना तिरा
तेरे दरवाज़े पे हाज़िर है तिरे दर का फ़क़ीर ऐ अमीरों के अमीर
मुझ पे भी हो कभी अल्ताफ़-ए-करीमाना तिरा लुत्फ़-ए-शाहाना तिरा
सदक़ा मय-ख़ाने का साक़ी मुझे बे-होशी दे ख़ुद-फ़रामोशी दे
यूँ तो सब कहते हैं 'बेदम' तिरा मस्ताना तिरा अब हूँ दीवाना तिरा
ग़ज़ल
कौन सा घर है कि ऐ जाँ नहीं काशाना तिरा और जल्वा-ख़ाना तिरा
बेदम शाह वारसी