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कौन देखेगा भला इस में है रुस्वाई क्या | शाही शायरी
kaun dekhega bhala isMein hai ruswai kya

ग़ज़ल

कौन देखेगा भला इस में है रुस्वाई क्या

जुरअत क़लंदर बख़्श

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कौन देखेगा भला इस में है रुस्वाई क्या
ख़्वाब में आने की भी तुम ने क़सम खाई क्या

उस का घर छोड़ के हम तो न किसी दर पे गए
पर समझता है उसे वो बुत-ए-हरजाई क्या

सुनते ही जिस के हुई जान हवा तन से मिरे
इस गली से ये ख़बर बाद-ए-सबा लाई क्या

वाह मैं और न आने को कहूँगा तौबा
मैं तो हैराँ हूँ ये बात आप ने फ़रमाई क्या

बह चला चश्म से यकबार जो इक दरिया सा
बैठे बैठे मुझे क्या जाने ये लहर आई क्या

हर्फ़-ए-मतलब को मिरे सुन के ब-सद-नाज़ कहा
हम समझते नहीं बकता है तो सौदाई क्या

शैख़-जी हम तो हैं नादाँ पर उसे आने दो
हम भी पूछेंगे हुई आप की दानाई क्या

कैफ़ियत महफ़िल-ए-ख़ूबाँ की न उस बिन पूछो
उस को देखूँ न तो फिर दे मुझे दिखलाई क्या

आज दम अपना ठहरता नहीं क्या जानिए आह
मस्लहत लोगों ने वाँ बैठ के ठहराई क्या

बर में वो शोख़ था और सैर-ए-शब-ए-माह थी रात
अपने घर क्या कहें थी अंजुमन-आराई क्या

पर गया सुब्ह से वो घर तो यही धड़का है
देखें आज उस का एवज़ ले शब-ए-तन्हाई क्या

देखने का जो करूँ उस के मैं दावा 'जुरअत'
मुझ में जुरअत ये कहाँ और मिरी बीनाई क्या