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कौन दरवाज़ा खुला रखता बराए इंतिज़ार | शाही शायरी
kaun darwaza khula rakhta barae intizar

ग़ज़ल

कौन दरवाज़ा खुला रखता बराए इंतिज़ार

सीमाब ज़फ़र

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कौन दरवाज़ा खुला रखता बराए इंतिज़ार
रात गहरी हो चली रहरव अबस है कल पुकार

आँख जल जाती है लेकिन ख़्वाब झुलसाती नहीं
सुरमई ढेरी की ख़ुनकी से जनम लेगी बहार

कौन दश्त-ए-कर्ब के आज़ार का आदी हुआ
कौन जा पाया है बहर-ए-दर्द की मौजों के पार

रंज में लिपटा रहा महताब का ग़मगीं बदन
रात टैरिस पर कोई सज्दे मैं रोया ज़ार-ज़ार

अब किसी शिकवे-गिले की कोई गुंजाइश नहीं
आप अपने हाथ से सौंपा था उस को इख़्तियार

कैफ़ियत की पूछ मत हमदम कि लुत्फ़-ए-क़ुर्ब से
आज कुछ बढ़ कर है अपने अंदरूँ बहता ख़ुमार

शाहज़ादी रौज़न-ए-ज़िंदाँ से रह तकती रही
शहर की रख़शंदगी में खो गया इक शहसवार

इक नज़र का मो'जिज़ा मेरे क़लम का सब हुनर
इक सुनहरी ध्यान से बरसी है नज़्मों की फुवार