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कतरा के गुल्सिताँ से जो सू-ए-क़फ़स चले | शाही शायरी
katra ke gulsitan se jo su-e-qafas chale

ग़ज़ल

कतरा के गुल्सिताँ से जो सू-ए-क़फ़स चले

वहीद अख़्तर

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कतरा के गुल्सिताँ से जो सू-ए-क़फ़स चले
ऐसी कोई हवा भी तो अब के बरस चले

आदाब-ए-क़ाफ़िला भी हैं ज़ंजीर-ए-पा-ए-शौक़
ये क्या सफ़र असीर-ए-सदा-ए-जरस चले

माना हवा-ए-गुल से थे बे-इख़्तियार हम
फिर भी बचा के राह का हर ख़ार-ओ-ख़स चले

पामाल हो के रह गए जश्न-ए-बहार में
ये फ़िक्र थी चमन पे ख़िज़ाँ का न बस चले

ऐ चश्मा-ए-हयात न दी तू ने बूँद भी
हम तिश्ना-काम अब्र की सूरत बरस चले

सुब्हें भी आ के ज़हर रग-ए-जाँ में भर न दें
हिज्रान-ए-यार तेरे अँधेरे तो डस चले

उन की ये ज़िद वो देखें गदा-ए-रफ़ू हमें
हम को ये फ़िक्र उन के गरेबाँ पे बस चले

था पास-ए-आबरू-ए-तमन्ना हमें 'वहीद'
चुन कर गुल-ए-मुराद सब अहल-ए-हवस चले