कट गया रिश्ता-ए-उलफ़त जो तिरा नाम आया
दिल वफ़ादार था लेकिन न मिरे काम आया
इश्क़ के हाथों चराग़ एक सर-ए-शाम आया
तीरा-बख़्ती में मिरा दिल ही मिरे काम आया
तलब-ए-मुल्क-ए-अदम से न जहाँ देख सका
अभी मंज़िल पे न उतरा था कि पैग़ाम आया
नाज़िश-ए-दहर न था मैं तो पस-ए-मुर्दन क्यूँ
महफ़िल-ए-ग़ैर में सौ बार मिरा नाम आया
शम्अ' रोई तो वो कुछ देर सही तुर्बत पर
ख़ैर कोई तो ज़माने में मिरे काम आया
ग़ज़ल
कट गया रिश्ता-ए-उलफ़त जो तिरा नाम आया
साक़िब लखनवी