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कशिश से दिल की उस अबरू कमाँ को हम रखा बहला | शाही शायरी
kashish se dil ki us abru kaman ko hum rakha bahla

ग़ज़ल

कशिश से दिल की उस अबरू कमाँ को हम रखा बहला

शैख़ ज़हूरूद्दीन हातिम

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कशिश से दिल की उस अबरू कमाँ को हम रखा बहला
जो कर क़ब्ज़े में दिल सब का फिरे था सब से वो गहला

जो गुज़रा अर्श से ये नुह फ़लक कुर्सी है उस आगे
करे है ला-मकाँ की सैर आशिक़ छोड़ नौ-महला

थका आख़िर को मजनूँ ग़म से राह-ए-इश्क़ में मेरे
ग़ुबार-ए-ख़ातिर-ओ-आँसू की बारिश देख कर चहला

गुलाबी ल'अल की हुइ हर कली मय-नोश सुन तुझ को
चमन में है खड़ी ले जाम-ए-नीलम नर्गिस-ए-शहला

रखी है हम ने बाज़ी ज़ोर से शमशीर के दुश्मन
किया चाहे था सर वासोख़्त हो मुझ नक़्श से दहला

तुम्हारे हुस्न के गुलशन में प्यारे कुछ न छोड़ूँगा
रक़ीबों के सर ऊपर चढ़ के तोडूँगा ये फल पहला

न था 'नाजी' को लाज़िम तअन करना हर सुख़न-गो पर
जवाब इस शेर का 'हातिम' नहीं कुछ काम तो कहला