करो वो काम जिस से हर किसी को फ़ाएदा पहुँचे
बनो वो शम्अ' जिस से तीरा-बख़्ती को ज़िया पहुँचे
ठहर कर साँस भी हम ने न ली जब गामज़न थे हम
जो रुक रुक कर चले राहों में वो मंज़िल को क्या पहुँचे
पिला कुछ इस तरह कि लौट कर जाना न हो मुमकिन
कि ठुकरा कर दो-आलम हम यहाँ तक साक़िया पहुँचे
जो कहते थे कि गर डूबे भी तो इक साथ डूबेंगे
वो हम को छोड़ कर मंजधार में साहिल पे जा पहुँचे
हमारे ख़ून से उस शोख़ के रंग-ए-हिना आए
पयाम-ए-शौक़ ले कर कोई उन तक दूसरा पहुँचे
मिरा ख़त फाड़ कर तुम ने किया अस्बाब-ए-रुस्वाई
ये टुकड़े उड़ के बिखरेंगे जहाँ तक भी हवा पहुँचे
न छेड़ ऐ मुतरिब-ए-ख़ुश-ज़ौक़ नग़्मा इश्क़-ओ-उल्फ़त का
कि जिस से इक शिकस्ता दिल के ज़ख़्मों को जिला पहुँचे
हम आजिज़ आ गए अब नासेह-ओ-मुल्ला की बातों से
जिन्हें है ख़ब्त जन्नत का उन्हें तो बस ख़ुदा पहुँचे
ग़ज़ल
करो वो काम जिस से हर किसी को फ़ाएदा पहुँचे
मजीद मैमन