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करेंगे शिकवा-ए-जौर-ओ-जफ़ा दिल खोल कर अपना | शाही शायरी
karenge shikwa-e-jaur-o-jafa dil khol kar apna

ग़ज़ल

करेंगे शिकवा-ए-जौर-ओ-जफ़ा दिल खोल कर अपना

क़मर जलालवी

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करेंगे शिकवा-ए-जौर-ओ-जफ़ा दिल खोल कर अपना
कि ये मैदान-ए-महशर है न घर उन का न घर अपना

मकाँ देखा किए मुड़ मुड़ के ता-हद्द-ए-नज़र अपना
जो बस चलता तो ले आते क़फ़स में घर का घर अपना

बहे जब आँख से आँसू बढ़ा सोज़-ए-जिगर अपना
हमेशा मेंह बरसते में जला करता है घर अपना

पसीना अश्क हसरत बे-क़रारी आख़िरी हिचकी
इकट्ठा कर रहा हूँ आज सामान-ए-सफ़र अपना

ये शब का ख़्वाब या-रब फ़स्ल-ए-गुल में सच न हो जाए
क़फ़स के सामने जलते हुए देखा है घर अपना

दम-ए-आख़िर इलाज-ए-सोज़-ए-ग़म कहने की बातें हैं
मिरा रस्ता न रोकें रास्ता लें चारा-गर अपना

निशानात-ए-जबीं जोश-ए-अक़ीदत ख़ुद बता देंगे
न पूछो मुझ से सज्दे जा के देखो संग-ए-दर अपना

जवाब-ए-ख़त का उन के सामने कब होश रहता है
बताते हैं पता मेरे बजाए नामा-बर अपना

मुझे ऐ क़ब्र दुनिया चैन से रहने नहीं देती
चला आया हूँ इतनी बात पर घर छोड़ कर अपना

शिकन-आलूद बिस्तर हर शिकन पर ख़ून के धब्बे
ये हाल-ए-शाम-ए-ग़म लिक्खा है हम ने ता-सहर अपना

यही तीर-ए-नज़र तो हैं मिरे दिल में हसीनों के
जो पहचानो तो लो पहचान लो तीर-ए-नज़र अपना

'क़मर' उन को न आना था न आए सुब्ह होने तक
शब-ए-व'अदा सजाते ही रहे घर रात भर अपना

ज़मीं मुझ से मुनव्वर आसमाँ रौशन मिरे दम से
ख़ुदा के फ़ज़्ल से दोनों जगह क़ब्ज़ा 'क़मर' अपना