कर के संग-ए-ग़म-ए-हस्ती के हवाले मुझ को
आईना कहता है अब दिल में छुपा ले मुझ को
मैं न दरिया हूँ न साहिल न सफ़ीना न भँवर
दावर-ए-ग़म किसी साँचे में तो ढाले मुझ को
इक तबस्सुम के एवज़ हेच नहीं जिंस-ए-वफ़ा
हँस के जो बात करे अपना बना ले मुझ को
इतना भरपूर कहाँ था मिरे ग़म का इज़हार
अजनबी लगते हैं अब अपने ही नाले मुझ को
मैं वो गुल हूँ जो महकता है सर-ए-शाख़-ए-हयात
क्यूँ कोई अपने गिरेबाँ में सजा ले मुझ को
जाने किस दश्त के काँटों ने पुकारा है 'जलील'
लिए जाते हैं कहीं पाँव के छाले मुझ को

ग़ज़ल
कर के संग-ए-ग़म-ए-हस्ती के हवाले मुझ को
हसन अख्तर जलील