EN اردو
कर के क़ौल-ओ-क़रार क्या कहना | शाही शायरी
kar ke qaul-o-qarar kya kahna

ग़ज़ल

कर के क़ौल-ओ-क़रार क्या कहना

पंडित जगमोहन नाथ रैना शौक़

;

कर के क़ौल-ओ-क़रार क्या कहना
ओ फ़रामोश-कार क्या कहना

हो के नादिम गुनह से पाक हुआ
वाह रे शर्मसार क्या कहना

काम बिगड़े तू ही बनाता है
ऐ मिरे किर्दगार क्या कहना

ख़ूब तू ने सुनी लगी दिल की
वाह रे ग़म-गुसार क्या कहना

दिन को तारे दिखा दिए तू ने
ऐ शब-ए-इंतिज़ार क्या कहना

ख़ाक में भी मिला के ऐ ज़ालिम
न किया ए'तिबार क्या कहना

दिल-ए-हसरत-ज़दा रहा न रहा
उस का क़ौल-ओ-क़रार क्या कहना

उस से हाल-ए-ग़म-ए-दिल-ए-मज़लूम
जो न हो शर्मसार क्या कहना

बा-वफ़ाई भी तेरी ऐ दिल-ए-ज़ार
रह गई यादगार क्या कहना

न सुने एक बार जो दिल की
उस से फिर बार बार क्या कहना

ख़ुम के ख़ुम 'शौक़' कर दिए ख़ाली
ऐ मिरे बादा-ख़्वार क्या कहना