कर दिया ज़ार ग़म-ए-इश्क़ ने ऐसा मुझ को
मौत आई भी तो बिस्तर पे न पाया मुझ को
कभी जंगल कभी बस्ती में फिराया मुझ को
आह क्या क्या न किया इश्क़ ने रुस्वा मुझ को
दुश्मन-ए-जाँ हुआ दर-पर्दा मिरा जज़्बा-ए-इश्क़
मुँह छुपाने लगे वो जान के शैदा मुझ को
रोज़-ए-रौशन हो न क्यूँकर मिरी आँखों में सियाह
है तिरे गेसु-ए-शब-रंग का सौदा मुझ को
इक परी-रू की मोहब्बत का मैं हूँ दीवाना
न परी का न किसी जिन का है साया मुझ को
रोज़-ओ-शब शोख़ ने क्या क्या न दिखाए नैरंग
रुख़ दिखाया कभी गेसू-ए-चलीपा मुझ को
दिन भले आए तो आ'दा सबब-ए-ख़ैर हुए
बद-दुआ ने किया अग़्यार की अच्छा मुझ को
फ़ख़्र से बज़्म-ए-बुताँ में वो कहा करते हैं
प्यार कुछ रोज़ से अब करते हैं 'रा'ना' मुझ को
ग़ज़ल
कर दिया ज़ार ग़म-ए-इश्क़ ने ऐसा मुझ को
मर्दान अली खां राना