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कपड़े बदल के आए थे आग मुझे लगा गए | शाही शायरी
kapDe badal ke aae the aag mujhe laga gae

ग़ज़ल

कपड़े बदल के आए थे आग मुझे लगा गए

मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी

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कपड़े बदल के आए थे आग मुझे लगा गए
अपने लिबास-ए-सुर्ख़ की मुझ को भड़क दिखा गए

बैठे अदा से एक पल नाज़ से उठ्ठे फिर सँभल
पहलू चुरा गए निकल जी ही मिरा जला गए

रखते ही दर से पा बरूँ ले गए सब्र और सुकूँ
फ़ित्ना-ए-ख़ुफ़ता था जुनूँ फिर वो इसे जगा गए

मुझ को तो काम कुछ न था गो कि वो थे परी-लक़ा
बार-ए-ख़ुदा ये क्या हुआ क्यूँ वो मुझे सता गए

है ये अजब तरह की बात क्यूँकि न मलिए अपने हाथ
दिल पे हमारे वो तो रात चौकी सी इक बिठा गए

सेहर किया कि टोटका आई ये वाए क्या बला
हाए ये जी किधर चला ज़ोर-ए-अदा दिखा गए

गरचे न थे कुछ इतने गर्म लेक दिखा अदा-ए-शर्म
दिल को लगे जो नर्म नर्म सख़्त क़लक़ लगा गए

आवेंगे फिर भी 'मुसहफ़ी' देखने मेरे घर कभी
अटका है अब तो उन से जी गरचे वो मुँह छुपा गए