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कमाल-ए-इश्क़ में सोज़-ए-निहाँ बाक़ी नहीं रहता | शाही शायरी
kamal-e-ishq mein soz-e-nihan baqi nahin rahta

ग़ज़ल

कमाल-ए-इश्क़ में सोज़-ए-निहाँ बाक़ी नहीं रहता

मोहम्मद उस्मान आरिफ़

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कमाल-ए-इश्क़ में सोज़-ए-निहाँ बाक़ी नहीं रहता
भड़क जाते हैं जब शो'ले धुआँ बाक़ी नहीं रहता

जबीं तो फिर जबीं है आस्ताँ बाक़ी नहीं रहता
जहाँ तुम हो किसी का भी निशाँ बाक़ी नहीं रहता

तुम्हें देखूँ तो क्या देखूँ तुम्हें समझूँ को क्या समझूँ
मोहब्बत में तो अपना भी गुमाँ बाक़ी नहीं रहता

उन्हीं से पूछिए ये उन के दिल पर क्या गुज़रती है
बहारों में भी जिन का आशियाँ बाक़ी नहीं रहता

कभी याद उन की आई है कभी वो ख़ुद भी आते हैं
मोहब्बत में हिजाब-ए-दरमियाँ बाक़ी नहीं रहता

मोहब्बत रास आती है तो छा जाती है दुनिया पर
बिगड़ती है तो फिर नाम-ओ-निशाँ बाक़ी नहीं रहता

ख़िज़ाँ में लाला-ओ-गुल का भरम भी खुल ही जाता है
हमेशा तो फ़रेब-ए-गुलिस्ताँ बाक़ी नहीं रहता

उसी मंज़िल में आते हैं कहीं दैर-ओ-हरम 'आरिफ़'
हरीम-ए-दिल से बच कर आस्ताँ बाक़ी नहीं रहता