EN اردو
कम उलझती है चराग़ों से हवा मेरे बाद | शाही शायरी
kam ulajhti hai charaghon se hawa mere baad

ग़ज़ल

कम उलझती है चराग़ों से हवा मेरे बाद

महशर बदायुनी

;

कम उलझती है चराग़ों से हवा मेरे बाद
शहर में शहर का मौसम न रहा मेरे बाद

मैं ने जल कर न दिया मस्लहत-ए-वक़्त का साथ
क्या ख़बर कौन जला कौन बुझा मेरे बाद

सच की ख़ातिर सर-ए-शोला भी ज़बाँ रख देता
बात ये है कोई मुझ सा न रहा मेरे बाद

डूबना था सो मैं इक मौज में पस डूब गया
और दरिया था कि बहता ही रहा मेरे बाद

फिर कोई शाम-ए-शफ़क़-दीदा भी उतरी कि नहीं
मेरी तन्हाई का क्या रंग हुआ मेरे बाद

और क्या हश्र था इस अंजुमन-अफ़रोज़ी का
बस यही था कि धुआँ और बढ़ा मेरे बाद

यूँ मैं आसूदा-ए-मंज़िल हूँ कि अब गर्द-ए-सफ़र
चूमती है मिरा नक़्श-ए-कफ़-ए-पा मेरे बाद

क्या बुरा वक़्त पड़ा शहर-ए-वफ़ा पर 'महशर'
मुझ को ही ढूँडती है मेरी वफ़ा मेरे बाद